कितना बेमोल है इन्तजार
कितनी बेनाम है प्रतीक्षा
कितने दिन-कितने आगत,
कितने विगत बना गया
कितने धूप भरे क्षण
ले गया चुरा कर
यही इन्तजार
घट जल सा ठहरा........ इन्तजार
सुबह की तरह
हाथो से सरकती..........प्रतीक्षा
कितनी व्यग्रता
कितना रोष और आक्रोश
धूल सा उदास मन
इतना सन्नाटा
इतना कुछ लिखता हुआ
फिर भी नि:शेष गहराता
कितना कुछ ख़त्म हो जाता
फिर भी घटता नहीं कुछ विशेष
ख़त्म नहीं होती.........प्रतीक्षा
ख़त्म नहीं होता .........इन्तजार!!
***हेमा***
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