एक साल में
एक माह है कम
चुप बैठे सोचते रहे हम
यूँही देखते रहे हम
बीते दिनों की सिकुड़ी झुर्रियाँ
फिर अचानक
फिर अचानक
झपट कर
ले अंजुरी दर अंजुरी
ले अंजुरी दर अंजुरी
देह को पिलाई
तेज,सख्त धूप
आँखों ने डाला,चौड़ा घेरा
और पी लिया,
रौशनी का
चढ़ता हर भाव
फिर दौड़ कर
हाँफते हुए ले ली -
ढेरो कपास के नीचे पनाह
हर प्राप्य - आधार है
गर्म या सर्द
भीगा या नम
कोमल या कठोर
कुछ भी नहीं खोना चाहती मै!!
***हेमा***
देह को पिलाई
ReplyDeleteतेज,सख्त धूप
आँखों ने डाला,चौड़ा घेरा
और पी लिया,
रौशनी का
चढ़ता हर भाव ....यहाँ आकर कविता जम के जमी ..बढ़िया, हेमा बधाई
"हर प्राप्य-आधार है
ReplyDeleteगर्म या सर्द
भीगा या नम
कोमल या कठोर
कुछ भी नहीं खोना चाहती मैं."
खोना भी क्यों चाहिए, कुछ भी !
अच्छा भाव-संयोजन है.
आभार मोहन सर ,आभार वंदना दी ..
ReplyDelete"खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
ReplyDeleteकेवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चाँदनी
पहने सुबह धूप की धोती"
- (गोपालदास नीरज जी)
Bahut khuub,Hemaji.
ReplyDeleteबीते दिनों की सिकुड़ी झुर्रियाँ
aur
गर्म या सर्द/भीगा या नम
कोमल या कठोर/कुछ भी नहीं खोना चाहती मै!!
ka koi javab naheen.
Aik behtreen kavita ke liye badhai.
-Meethesh Nirmohi,Jodhpur.
फिर अचानक
ReplyDeleteझपट कर
ले अंजुरी दर अंजुरी
देह को पिलाई
तेज,सख्त धूप
आँखों ने डाला,चौड़ा घेरा
और पी लिया,
रौशनी का
चढ़ता हर भाव....वाह! हेमा जी क्या खूब लिखती है आप... बधाई स्वीकारे ....आप के ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा ....
हर अनुभव का कुछ न कुछ मूल्य है और वह कुछ दी जाता है ! अच्छा भाव है कविता का ! बधाई हेमा जी !
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