Monday, June 4, 2012

........ साँस

जाने कब से
सुनते आए थे ...
कि बिजलियाँ गिरा करती है
आसमानों से ...
कुछ रोज गुजरे है बस ...
आसमानों में हमेशा उड़ने की
आदते ही तो सुधारी है जरा ...
चार सीढियाँ ही तो
उचकते पंजो ने उतारी है जरा ...
उनके सिरों में आँखों ने
उनीदी पलकें खोली ही तो है जरा ...
देखो भी जाने कब यह बात हुई
कि बिजलियों ने
किसी बरस ...
किसी रोज ...
जमीन में बो दिये थे अपने बीजे ...
और अब बिजलियाँ
जमीन में कहीं बहुत गहरे से
मेरे तलुवों के नीचे से उगती है ...
तो ठीक-
तय रहा ...
मेरे कहने को ...
बिजलियाँ अब गिरा नहीं करती ...
मेरे तलुवों की
कोख तले उगा करती है ...

~हेमा~

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6 comments:

  1. वाह! सुंदर शिल्प और उतने ही सुंदर भाव.. बस 'जमीन में... बीजें'में बीज होना चाहिए शायद, बीजें नहीं।

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  2. बहुत सुंदर..................

    अनु

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  3. बहुत ही बढ़िया


    सादर
    -------
    ‘जो मेरा मन कहे’ पर आपका स्वागत है

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  4. क्या सुंदर रचना....
    सादर।

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  5. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

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